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Saturday, July 11, 2020

Khandal Brahmins - Original Descriptions

Dear Readers,

Khandal Brahmin Community Gotras.

Khandal Brahmins are one of the many brahmin communities in India.This community understood to be originated from Rajasthan state of India.However,currently they are very much spread all over India.Khandal Brahmins have 50 sub caste(Gotras in it), tradituonally they are allowed to marry among themselves.but,the caste of father and mother are avoided while finding the match. Earlier when the spread was less ,the gotra's of grandmother too was avoided . As the time progressed to 21st century ,the popularity of inter caste marriage,financial independence impacted the scope of marriage circle and they have started to marry in other brahmins ,even in Kshetritas and Vaiishya community.
The name of different 50 gotra are as below:


खाण्डल विप्र (खण्डेलवाल ब्राह्मण) गोत्र -
१ माठोलिया
मठ्मालयमासाध जाप जगदीश्वम ।
अतो माठालयो भूमौ ब्राह्नणः ख्यातिमागतः ॥१॥
मठ नमक स्थान में बैठकर जो जगदीश्वर का जप किया करता था, वह ब्राह्नण पृथ्वी पर मठालय (माठोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥१॥
मठालय का माठोलिया रूप समय पाकर बना हुआ है। लोक में अन्य परिवर्तनों के समान शाब्दिक परिवर्तन भी होते रह्ते है, उसी अनुसार आरंभ का मठालय समय पाकर माठालया और फिर माठोलिया रुप में परिवर्तित हो गया।
२. बढाढरा
वंटकोलं समाहत्य चाहारमनुकल्पयॅत ।
ततस्तस्य समाह्वानं वटाहारमिति क्षितौ ॥२॥
बडवंटे (वरगद के फल) इकट्टे कर जो ॠषि भोजन करता था, उसे लोग वटाहार ( बढाढरा ) कहने लग गये ॥२॥
उच्छवृत्ति परायण ऋषियो में कन्दमूल खाने का जो प्रचलन था, उसके अनुसार ॠषि स्वेच्छानुसार कन्दमूल का चुनाव करते थे।
३. श्रोत्रिय (सोती)
विप्रेभ्योपि ददौ धीमान वेदान साड्गाननुक्रमात ।
पाठयित्वा ततो विप्रः श्रोत्रियो विश्रुति गतः ॥३॥
जो बुद्धिमान विप्र छहो अंगो सहित अध्यापन द्वारा ब्रह्मणो को वेद ज्ञान प्रदान करता था वह श्रोत्रिय (सोती) के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३॥
४. सामरा
देवैः सह सदा यस्य व्यवहारः प्रवर्तते ।
सामरः स तु विख्यातः स्वर्गे वा क्षितिमंडले ॥४॥
जिस विप्र का लेनदेन देवताओ के साथ रहा करता था, वह स्वर्ग और पॄथ्वी मण्डल में सामर (सामरा) नाम से विख्यात हुआ ॥४॥
५. जोशी
ज्योतिर्विदाम्बरो धीरो यज्ञवैलां ददावथ ।
ज्योतिपीति समाख्यातो देवविप्रसभासु यः ॥५॥
ज्योतिर्विदो में जो विप्र यज्ञ वेला का मुहूर्त देने वाला था, वह देव विप्र सभाओं में ज्योतिषी (जोशी) के नाम से विख्यात हुआ ॥२॥
एक दीर्घकाल से आर्य हिन्दू समाज में ज्योतिषियों के लिये जोशी शब्द का व्यवहार प्रचलित है। इसी आधार पर ज्योतिविंद अथवा ज्योतिष मर्मज्ञ का गोत (सासन या अवटंक) जोशी नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
६. रणवा
रणमुद्व्हते योऽसौ यज्ञध्नैदैत्यपुंगवैः ।
यज्ञसंरक्षणयैव रणोद्वाहीं प्रथां गतः ॥६॥
जो यज्ञ नाशक दैत्य पुंगर्वो से युध्द कर यज्ञ की रक्षा करता था, वह ऋषि रणोद्वाही (रणवाद अथवा रणवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥६॥
ऋषि समाज में आत्मरक्षण के लिये शस्त्र ग्रहण करना उपयुक्त समझा जाता था। वह श्लोक इसकी पुष्टि करता है।
७. बीलवाल
सुपक्वानि च विल्वान यज्ञार्थ संहतानि च ।
विल्ववानथ स ख्यातो ब्राह्णाणेषु द्विजोत्तमः ॥७॥
जो द्विजोत्तम पके हुए विल्व फल इकट्ठे कर यज्ञ के लिये लाया करता था, वह ब्रह्मणो में विल्वान (बीलवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥७॥
८. बील
विल्वमालाच शिरसि गले च भुजयोरपि ।
विल्वमुले स्थितो योऽसौ तस्माद्विल्व इति श्रुतः ॥८॥
जो सिर, गले और भुजाओं में विल्व की मालायें धारण करता तथा जो विल्व के नीचे बैठा करता था, वह इसी कारण विल्व (बील) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥८॥
९. कुँजवाड
लतागृह समाश्रित्य जजाप परमं जपः ।
कुज्वाडिति विख्यातो ब्राम्हणो ब्रम्हवित्तमः ॥९॥
लतागृह में बैठकर जिसने उत्कृष्ट जप किया, वह ब्रह्म्वेत्ता ब्रह्म्ण कुन्जवाद (कुन्जवाड) नाम से विख्यात हुआ ॥९॥
ऋषि लोग प्रकृति प्रेमी होते थे । उनका बौद्धिक विकास प्रकृति के सानिध्य से ही होता था । वे लोग लता कुँजों में ही जीवन बिताते थे ।
१०. सेवदा
ररक्ष सेवधिं द्रव्यमृषीणां परमाज्ञया ।
तस्मात्स सेवधिर्नामा विख्यातो भूवि ब्राह्मणः ॥१०॥
जो ऋषियों की आज्ञानुसार यज्ञीय धन की रक्षा किया करता था, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी पर सेवधि (सेवदा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१०॥
११. चोटिया
शिखा वृद्धतरा यस्य सर्वांगे लुलिता परा ।
तस्माच्चौल इति ख्यातो भूसुरो भुविमंडले ॥११॥
बडी भारी चोटी जिसके सारे शरीर पर पडी रहा करती थी, वह ब्राह्म्ण पृथ्वी मंडल में चौल (चोटिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥११॥
१२. मणडगिरा
मणडमागिरते नित्यं दन्तहीनो द्विजोत्तमः ।
ततो मणडगिलः ख्यातः सर्वदा भुवि मंण्ड्ले ॥१२॥
जो द्विज श्रेष्ठ दन्त हीन होने के कारण प्रतिदिन चावलो का मांड पिया करता था, इसी कारण वह पृथ्वी मण्डल में मण्डगिल (मंडगिरा) नाम से विख्यात हुआ ॥१२॥
१३. सुन्दरिया
सुन्दरस्तुन्दिलो योऽसौ त्रिवल्या परिशोभते ।
तेनैव सुन्दरो भुमौ विख्यातो विप्रसत्तमः ॥१३॥
जिस श्रेष्ठ ब्राह्म्ण की तोंद त्रिवली से सुशोभित थी वह उसी कारण पृथ्वी पर सुन्दर (सुन्दरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१३॥
१४. झकनाडा
झषनर्तनमालोक्य परमानन्दमात्मनः ।
यो मेने मनसा धीमान झषनाट्य इति स्मृतः ॥१४॥
जो बुद्धिमान ब्राह्म्ण मछलियों का नृत्य देखकर अपने मन में आनन्द का अनुभव करता था, वह झषनाटय (झखनाडा) नाम से स्मरण किया गया ॥१४॥
१५. रूंथला
चरूस्थाली करे कृत्वा प्रजपन्मंत्रमुत्त्मम ।
अजोहवोत्तदा वन्दौ चरूस्थालीति विश्रतः ॥१५॥
जो चरूस्थाली को हाथ में लेकर मंत्र जपता हुआ अग्नि में आहुतियां दिया करता था वह चरुस्थाली (रुंथला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥१५॥
१६. गोधला
गोधूली समये नित्यं यो भुनक्ति महामतिः !
स तद्व्रतप्रभावेण गोधूलिख्यातिमागतः ॥१६॥
जो महामति गोधूलि वेला में भोजन किया करता था, वह उस ब्रत के प्रभाव से गोधूली (गोधला) नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
१७. गोरसिया
गोतक्र यः पिवेन्नित्यं मन्यदन्नं न भज्ञयेत ।
गोरस इति ख्यातो विप्रः पुण्येन कर्मण ॥१७॥
जो नित्य केवल गोतक (गाय की छाछ) पिया करता था और दूसरा अन्न नहीं खाता था, वह विप्र पुण्य कर्म से गोरस (गोरसिया) नाम से विख्यात हुआ ॥१७॥
१८. झुन्झुनाद
यज्ञस्यान्ते च यो नित्यं सामवेदं स्वरान्वितम ।
धुनोति ब्राह्म्णः श्रीमान झुन्झुनाद इतीरितः ॥१८॥
यज्ञ समाप्ति पर जो सस्वर सामवेद का गान करता था, वह झुन्झुनाद (झुन्झुनादा) नाम से पुकारा जाने लागा ॥१८॥
१९. भूमरा
भूगर्तान्यत्र कूत्रापि द्य्ष्ट्वा भरति यः सदा ।भूभरः स तु विख्यातः सर्वत्र सुखदो द्विजः ॥
जहा कहीं पृथ्वी में गड्टों को देखकर जो सदा उनको पात देता था, सर्वत्र सुख देने वाला वह द्विज भूभर ( भूभरा ) नाम से बिख्यात हुआ ॥१९॥
२०. वटोटिया
वटमूलमुपाश्रित्य नैत्यकं कुरूते तु यः ।
वटोधा धै समाख्यातो भू सुरेसु निरन्तरम् ॥२०॥
जो वरगद के नीचे बैठकर नित्य कर्म करता था, बह निरन्तर भूसुर वर्ग में वटोधा ( वटोटिया अथवा वट ओटिया ) नाम से विख्यात हुआ ॥२०॥
२१. काछ्वाल
कक्षमाश्रित्य वैधास्तु जुहुयामंत्रसंयुतम ।
क्ज्ञावानिति सर्वत्र विख्यातः ऋषिपुड्गवः ॥२१॥
जो वेदी के कोने में बैठकर मंत्रोच्चारण पुर्वक आहुति दिया करता था, वह ऋषि श्रेष्ठ सर्वत्र कज्ञावान (काछवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२१॥
२२. शिवोद्वाही (सोडवा)
शिवमुद्वहते कण्ठे नित्यं भक्त्या मुनिमर्हान ।
शिवोद्वाहीति लोकोस्मिन तेन ख्यातो विदाम्बरः ॥२२॥
जो महामुनि भक्ति पुर्वक नित्य कण्ठ में शिवजी को धारण करता था, वह शिवोद्वाही (सोडवा) नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ ॥२२॥
२३. भाटीवाडा
भट्टस्य रूपमास्थाय युध्यते यो निरन्त्म ।
तेनैव भुतले ख्यातो भाटीवानिति पंडितः ॥२३॥
योद्धा का रूप धारण कर जो निरन्तर युद्ध किया करता था वह पण्डित भाटीवान (भाटीवाडा) नाम से पृथ्वी तल पर विख्यात हुआ ॥२३॥
२४. गोवला
गाः पालयति यः स्नेहान्नियं धर्मपरायणः ।
तासामेत्र बलो यस्य गोबलः कथितो द्विजैः ॥२४॥
जो प्रेम पूर्वक धर्मपरायण होकर नित्य गौओं का पालन करता था और जिसके गोओं का बल ही प्रधान था वह द्विजों द्वारा गोवल (गोवला) नाम से पुकारा गया ।
२५. वशीवाल
वशीकृत्य जनान् सर्वान् वर्तते क्षितिमण्डले ।
तत्प्रभावात् समाख्यातो वशीवानिति भूतले ॥२५॥
जो सब जनों को वश में कर निवास करता था, वह उसी प्रभाव से पृथ्वी पर वशीवान् (वशीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२५॥
२६. मंगलहारा
मनसा वचसा नित्यं सर्वेषामभिवाच्छति ।
मंगलाहरति योऽसौ तस्मान्मंगलहारकः ॥२६॥
मन और वाणि से जो सब का भला चाहता था और सब का मंगल करता था, वह मंगलाहर (मंगलहारा) नाम से विख्यात हुआ ।
२७. बोचीवाल
जो क्रान्तकर्मा धर्मान्धर्मात्मकः कविः ।
तस्मादसौ च विख्यातो वोचीवानिति नामतः ॥२७॥
जो क्रान्तकर्मा धर्मात्मा ऋषि यज्ञशाला में धार्मिक उपदेश दिया करता था, यह इसी कारण वोचीवान् (वोचीवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥२७॥
२८. धुगोलिया
दियो गोलमथालम्व्य वर्णितं व्योमविस्तरम् ।
तस्मादत्र समाख्यातो धूगोल इति विद्वरः ॥२८॥
खगोल का अवलम्बन कर जिसने खगोल का विस्तार पूर्वक वर्णन किया, इसी कारण वह ज्ञानियों में श्रेष्ठ धूगोल (दुगोलिया) नाम से विख्यात हुआ ॥२८॥
ऋषियों में नाना प्रकार की गवेषणायें करने का प्रचलन था । इस अवटंक के प्रवर्तक ऋषि ने भी खगोल का प्रामाणिक अनुसन्धान किया था ।
२९. कुन्जवाडा
गुन्जावितानमाछाध वटस्य परितो बुधः ।
तत्र चोवास यो धीरो गुन्जावाट इति श्रुतः ॥२९॥
जो विद्वान् गुन्जा के लता कुन्जों को बड पर चढाकर उनके नीचे निवास करता था, वह गुन्जावाट (गुन्जावडा) नाम से विख्यात हुआ ॥२९॥
३०. परवाल
प्रवालगौरवर्णश्र्च प्रवालैश्चैव मण्डितः ।
प्रवालमालयोपेतः प्रवालः स च कथ्यते ॥३०॥
जो ऋषि प्रवाल के समान गौर वर्ण था और जो प्रवालों से विभूषित और प्रवाल मालाधारी था, उसका नाम लोगों ने प्रवाल (परवाल) रक्खा ॥३०॥
३१. हूचरा
हू हू नामानमाहूय चानद्दज्ञवेश्मनि ।
चारयामास गान्धर्व तस्माद्धूचरको द्विजः ॥३१॥
यज्ञगृह में हूहू नामक गान्धर्व को बुलाकर जो गान्धर्व वेद का गायन करवाया करता था, वह द्विज (हूचरिया) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३१॥
३२. नवहाल
जाम्बूद्रुममयं नूत्नं हलं जप्राह यो द्विजः ।
चकर्ष याज्ञिकीं भूमिं नवहाल प्रथां गतः ॥३२॥
जिसने जामुन का नया हल बना कर यज्ञ की भूमि को जोता, वह ब्राह्मण नवहाल नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३२॥
३३. वांठोलिया
यज्ञवाटमुपागम्य ह्यलिखन् स्थण्डिलं तु यः ।
जजाप परमं जापं तेन वांटोलिकः स्मृतः ॥३३॥
जो यज्ञ कि वेदी में रंग भरा कर गायत्री का जप किया करता था, वह उसको लोग वांठोलिक (वांठोलिया) कहते थे ॥३३॥
३४. पीपलवा
अश्वत्थमूलमासाद्द तस्वैव फलमत्ति यः ।
पिप्लवानिति ख्यातो भूमौ विप्रवरस्ततः ॥३४॥
पीपल के पेड की जडो में बैठकर जो पीपल के ही फल खाया करता था, वह विप्रवर पिप्पलवान (पीपलवा) नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥३४॥
३५. मुछावला
श्मश्रुभिर्मुखमाच्छन्नो वर्तते यज्ञमण्डले ।
श्मश्रुलो हि समाख्यातः समुद्रान्तर्गतो भुवि ॥३५॥
दाढी मूछों से जिसका मुँह ढका रहता था, वह ऋषि द्विजों में श्मश्रुन (मुछ्वाल) नाम से विख्यात हुआ ॥३५॥
३६. तिवाडी
त्रिद्वार समागम्य जजाप जननी श्रुतिम् ।
त्रिवारीति च लोकेस्मिन् विख्यातिमधुना गताः ॥३६॥
जो तीन द्वार का मकान बनाकर उसमें गायत्री जपा करता था, वह इस लोक में (तिवाडी) के नाम से विख्यात हुआ ॥३६॥
३७. पराशला
पराशार्थ च यो लाति यस्मात्कस्माद्धनं बहुः ।
ततः पराशलो विप्रो विख्यातो भुवनत्रये ॥३७॥
जो ऋषि समिधा संचय के लिये इधर उधर से पर्याप्त धन लाया करता था, वह लोकत्रय में पराशल (पराशला) नाम से विख्यात हुआ ॥३७॥
३८. घाटवाल
घट्टमाश्रित्य कुण्डस्य भारत्याः मंत्रमुज्जपन् ।
घट्टवानिति विप्रेशः सर्वत्र विदितो ह्यभूत् ॥३८॥
जो यज्ञवेदी के किनारे बैठकर सरस्वती का जप किया करता था, वह सर्वत्र घट्टवान (घाटवाल) नाम से विख्यात हुआ ॥३८॥
३९. बणसिया
वने च निवसन्यो वै मन्त्र च द्वादशात्मकम् ।
जजाप परया भवत्या वानस्थो विश्रुतो भुविः ॥३९॥
जो वन में निवास करता हुआ द्वादश अक्षरात्मक "नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जाप किया करता था, उसको वनाश्रय (वणसिया अथवा वनसायिक) नाम से पुकारते थे ॥३९॥
४०. सिंहोटा
सिंहपृष्टसमारूह्य भगवत्याः प्रसादतः ।
सर्वत्राटति यो धीमाँस्ततः सिंहोटकः स्मृतः ॥४०॥
जो बुद्धिमान ऋषि भगवती के प्रसाद से सिंह पर चढकर सर्वत्र घूमा करता था, वह सिंहोटक (सिंहोटा अथवा सिंहोटिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४०॥
४१. भुरटिया
भूर्भटं च तृणं सम्यगादाय शयनं रचेत्
भूर्भट इति विख्यातो बभूव धरणितले ॥४१॥
जो भरूंट घास को बिछाकर सोया करता था, वह धरणि तल पर भूर्भट (भरूटिया अथवा भुरटिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४१॥
४२. टंकहारी
टंकं टंकं समादाय चाहारं कुरूते सदा ।
टंकहारीति विख्यातो लोके च परमर्षिभिः ॥४२॥
जो नित्य चार चार मासे के ग्रास लेकर भोजन किया करता था, वह महर्षियो द्वारा टंकहारी नाम से विख्यात हुआ ॥४२॥
४३. अजमेरिया
अजे ब्रह्मणि यो मेधां संयोज्य कर्म संचरेत ।
अजमेधा महीपृष्टे सर्वत्र विदितो ह्यभूत् ॥४३॥
जो ऋषि अजन्मा ब्रह्म में बुद्धि लगा कर कर्म किया करता था, वह सर्वत्र पृथ्वी तल पर अजमेधा (अजमेरिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४३॥
४४. डीडवाणिया
डिंडिमं च पुरस्कृत्य विचचार महीतले ।
डिंडिमवानिति ख्यातो भूसुरो भूमिमण्डले ॥४४॥
जो डमरू लेकर पृथ्वी पर विचरण किया करता था, वह ब्राह्मण डिंडिमवान (डीडवाणिया अथवा डीडवाणा) नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ ॥४४॥
४५. निटाणिया
निधनानि च भूयांसि समादाय धनेश्र्वरात् ।
विभज्य याचकेभ्योऽदान्निधानियो हि सोप्यभूत ॥४५॥
जो ऋषि सुबेर से बहुत सा धन लाकर याचकों में बांटा करता था, वह निधानीय (निटानिणिया) नाम से विख्यात हुआ ॥४५॥
४६. डाभडा अथवा डावस्या
दर्भभारं समादाय तस्यास्तरणमाकहोत् ।
तेनैव हेतुना विप्रः दर्भशायीति विश्रुतः ॥४६॥
जो डाभ बिछा कर सोया करता था, वह दर्भशायी (डाभडा अथवा डावस्या) नाम से विख्यात हुआ ॥४६॥
४७. खडभडा अथवा निठुरा
निष्ठुरं वचनं यस्तु वदत्येव जनेष्विह ।
तन्नाम निष्ठुरो लोके बभूव परमाद्रुतम् ॥४७॥
जो ऋषि मनुष्यों के समूह में कठोर वचन बोला करता था, इसीसे वह परमादभुत काम करने वाला निष्ठुर (निठुर अथवा खडभडा) नाम से विख्यात हुआ ॥४७॥
४८. बोहरा अथवा भूसुरा
व्यवहारप्रियो लोके व्यवहरति जनेष्विह ।
व्यवहारीति विप्रोऽसौ सततं ख्यातिमागतः ॥४८॥
व्यवहार प्रिय जो ऋषि संसार में लेन देन का व्यवहार करता था, वह विप्र निरन्तर व्यवहारी (बोहरा अथवा भूसुरा) नाम से विख्यात हुआ ॥४८॥
४९. वांटणा
आयान्तं ब्राह्मणं द्दष्ट्वा तस्मै यच्छति यो धनम् ।
तस्मात्तु विप्रो विख्यातो विभाजीति जनेषु सः ॥४९॥
जो समागत ब्राह्मण को देखकर उसे धन दिया करता था, वह विभाजी (वांटणा) नाम से विख्यात हुआ ॥४९॥
५०. शकुन्या
शकुनानि च सर्वाणि 
विचचार विचारयन् ।
शाकुनीति ततो लोके विख्यातिं गतवान्मुनिः ॥५०॥
जो मुनि समस्त शकुनों का विचार करता हुआ विचरण करता था, वह लोक में शाकुनि (शकुन्या) नाम से विख्यात हुआ ॥५०॥

Thanks
Ramdhan Sharma(Khandal Joshi)





Monday, October 15, 2007

Khandal Brahmin(Gotras)







Khandal Brahmin Gotras List:-
1. Rinwa
2. Ruthla (Charushthala)
3. Chotiya
4. Matholiya
5. Badhadhra
6. Shrotiya (Soti)
7. Samra
8. Joshi
9. Beelwal
10. Beel
11. Kunjawada
12. Sevda
13. Mandgira
14. Sundariya
15. Jhakhnadiya
16. Godhla
17. Gorasiya
18. Jhunjhunodiya
19. Bhubhara
20. Vatotiya
21. Kachwal
22. Sodwa
23. Bhatiwada
24. Banshiwal
25. Govala
26. Mangalihara
27. Bochiwal
28. Dugoliya
29. Gunjawada
30. Parwal
31. Huchariya
32. Navhal
33. Bantholiya
34. Pipalwa
35. Muchawala
36. Tiwadi (Tiwari)
37. Parashala
38. Ghatwal
39. Bansiya
34. Sihota
41. Bhuratiya
42. Tankhari
43. Ajmeriya
44. Didwaniya
45. Nitaniya
46. Davsaya
47. Khadbhada
48. Vatana
49. Shakunya
50. Bohra